गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा – मीरा बाई

यह पद भक्त शिरोमणि मीरा बाई की अनुपम भक्ति और उनके प्रभु श्रीकृष्ण के प्रति गहन प्रेम का अद्भुत उदाहरण है। इस पद में मीरा बाई ने अपनी आत्मा की उस वेदना को व्यक्त किया है, जो प्रियतम (श्रीकृष्ण) से मिलने की उत्कंठा में तड़प रही है। यह पद भगवान से अनन्य प्रेम, भक्ति और उनके दर्शन की प्रबल इच्छा का प्रतीक है। मीरा के पदों में ईश्वर से अलगाव के कारण उत्पन्न वेदना और मिलन की तीव्र आकांक्षा होती है। मीरा का प्रेम किसी भी भौतिक स्वार्थ से परे, पूर्णतः समर्पित और अनन्य है। उनके लिए कृष्ण केवल भगवान नहीं, बल्कि उनके प्रियतम, साथी और आत्मा के लक्ष्य हैं।

गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा।
चरण कमल को हंसि हंसि देखूँ, राखूं नैना नेरा।1
निरखन को मोहे चाव घनेरो, कब देखूँ मुख तेरा।2
व्याकुल प्राण धरत नहीं धीरज, मिल तू मीत सवेरा।3
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताप तपन बहुतेरा।4

गोबिंद कबहुं मिलै पिया मेरा।
  • गोबिंद: मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण।
  • कबहुं: कब।

अर्थ: “हे मेरे गोविंद, मेरे प्रियतम, तुमसे मिलन का वह शुभ क्षण कब आएगा?”

यहाँ मीरा अपने आराध्य श्रीकृष्ण के मिलन के लिए व्याकुल हैं। यह पंक्ति आध्यात्मिक विरह की भावना को प्रकट करता है, जहां आत्मा (भक्त) अपने परमात्मा (भगवान) से मिलन की कामना कर रही है। यह मिलन सांसारिक नहीं है, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच एक दिव्य एकता की बात करता है। भगवान से मिलन, जो जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है, केवल भक्त के प्रेम, समर्पण और धैर्य के माध्यम से संभव है। मीरा यह प्रार्थना करती है कि उसकी प्रतीक्षा कब समाप्त होगी और उसे अपने ईश्वर का साक्षात्कार कब होगा।

1. चरण कमल को हंसि हंसि देखूँ, राखूं नैना नेरा।
  • चरण कमल: श्रीकृष्ण के दिव्य कमल चरण।
  • हंसि हंसि: हर्षित होकर, प्रेमपूर्वक।
  • राखूं: टिकाए रखना।
  • नेरा: निकट।

अर्थ: “मैं हर्षित होकर अपने प्रभु के कमल जैसे चरणों को देखना चाहती हूँ और अपनी आँखें उन्हीं पर स्थिर रखना चाहती हूँ।”

मीरा बाई यहाँ श्रीकृष्ण के चरण कमलों के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करती हैं और उनके सौंदर्य को देखने के लिए अपनी आँखों को आतुर बताती हैं। उनकी भक्ति इतनी गहन है कि उनके प्राण व्याकुल हो उठते हैं, और वह धैर्य खो बैठती हैं। यह पद इस बात का सजीव चित्रण करता है कि सच्ची भक्ति में भक्त और भगवान के बीच कैसी अलौकिक आत्मीयता होती है।

2. निरखन को मोहे चाव घनेरो, कब देखूँ मुख तेरा।
  • निरखन: निहारना।
  • चाव: उत्कंठा, लालसा।
  • घनेरो: अत्यधिक।

अर्थ: “हे गिरधर नागर! तुम्हारे मुखकमल को निहारने की मेरी लालसा अत्यधिक है। मैं तुम्हारा मुख कब देख पाऊँगी?”

मीरा कहती हैं कि मुझे तुम्हारे दर्शन का अत्यंत चाव है, जैसे प्यासे को पानी का या अंधकार में खोए व्यक्ति को रोशनी का। यह प्रतीक्षा और विरह की अवस्था है, जहां मीरा अपने प्रभु के दर्शन के लिए आतुर हैं और व्याकुल होकर पूछती हैं कि वह शुभ दिन कब आएगा। मीरा यहाँ भगवान के दर्शन की प्रबल इच्छा प्रकट करती हैं। उनके लिए यह भगवान के साक्षात दर्शन का प्रतीक है। मीरा अपने गीतों के माध्यम से यह संदेश देती हैं कि ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और समर्पण हमें मोक्ष और आत्मिक शांति की ओर ले जाता है। मीरा बाई का यह विरह उनके जीवन के अनुभवों से प्रेरित है। जब उन्होंने सांसारिक बंधनों को त्यागकर श्रीकृष्ण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया, तो उनका हर क्षण भगवान के दर्शन और उनसे मिलन की आकांक्षा में बीता। यह पंक्ति उस गहरी भावना को उजागर करती है।

3. व्याकुल प्राण धरत नहीं धीरज, मिल तू मीत सवेरा।
  • व्याकुल: बेचैन।
  • प्राण: आत्मा।
  • धरत नहीं: सहन नहीं कर पा रही।
  • धीरज: धैर्य।
  • मीत: प्रियतम।

अर्थ: “हे मेरे गिरधर, मेरी आत्मा बेचैन है, अब धैर्य नहीं हो पा रहा है। कृपा करके सुबह मुझे दर्शन देकर मुझसे मिलो।”

मीरा का हृदय श्रीकृष्ण के दर्शन और उनके साथ मिलन की आकांक्षा में बेचैन है। यहाँ मीरा अपनी आत्मा की अधीरता और प्रभु के मिलन की प्रबल आकांक्षा व्यक्त करती हैं। उनके प्राण इतने व्याकुल हैं कि धैर्य रखना असंभव हो गया है। यहां श्रीकृष्ण को “मीत” (प्रियतम) कहा गया है, जो मीरा के जीवन का केंद्र और उनके प्रेम का एकमात्र उद्देश्य हैं। “सवेरा” शब्द प्रतीकात्मक है, जो मीरा के जीवन में तब आएगा जब श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे और आत्मा को शांति मिलेगी।

4. मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताप तपन बहुतेरा।
  • गिरधर नागर: श्रीकृष्ण का नाम, जो गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले (गिरधर) और प्रेम के सौंदर्यस्वरूप (नागर) हैं।
  • ताप: संसार के दुख, कष्ट, और विपत्तियाँ।
  • तपन: जलन, पीड़ा।
  • बहुतेरा: बहुत अधिक।

अर्थ: “हे गिरधर नागर, जो मीरा का सर्वस्व हैं, मेरे जीवन में कष्टों की अग्नि बहुत अधिक है। कृपा कर इसे शांत करो।”

मीरा बाई ने अपनी रचनाओं में बार-बार भगवान श्रीकृष्ण को “गिरधर नागर” कहकर संबोधित किया है, जो उनके प्रियतम और आराध्य थे। ताप तपन बहुतेरा” का तात्पर्य है कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत दुःख और कठिनाइयों का सामना किया। यह कष्ट समाज, परिवार, और सांसारिक बंधनों से जुड़े थे। मीरा को अपने परिवार और समाज से कड़ा विरोध झेलना पड़ा। उन्हें उनके भक्ति मार्ग के कारण तिरस्कार और यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी भक्ति को त्यागा नहीं। इन कष्टों के बावजूद, मीरा के लिए गिरधर नागर (श्रीकृष्ण) ही उनके जीवन का आधार और हर पीड़ा का समाधान थे। मीरा के लिए ये कष्ट भगवान की परीक्षा की तरह थे, और उन्होंने इन्हें अपनी साधना का हिस्सा माना। वह अपने जीवन के कष्टों को भगवान के चरणों में समर्पित करती हैं और उनकी कृपा की याचना करती हैं। मीरा कहती हैं कि उनके प्रभु गिरधर नागर हैं, और उनके जीवन का हर क्षण उन्हीं के नाम को समर्पित है। उनका यह प्रेम निश्छल, स्वार्थहीन, और सर्वोच्च स्तर का था।

इस पद के माध्यम से मीरा ने प्रेम और भक्ति के उस उच्चतम स्तर को दर्शाया है, जहाँ सांसारिक सुख-दुख गौण हो जाते हैं, और केवल भगवान का स्मरण ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है। उनकी तपस्या और समर्पण ने उन्हें भक्ति आंदोलन की एक अनूठी और प्रेरणादायक संत बना दिया।

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