गीत गोविन्द (गीतगोविंदम्)

परिचय

गीत गोविंद एक संस्कृत महाकाव्य है, जिसे 12वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि जयदेव ने रचा था। यह काव्य मुख्यतः भगवान श्रीकृष्ण और राधा के दिव्य प्रेम को समर्पित है। इस महाकाव्य में राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन अत्यंत कोमल, भावपूर्ण और भक्ति से ओतप्रोत शैली में किया गया है।

जयदेव, ओडिशा के रहने वाले एक भक्त कवि थे। गीत गोविंद केवल भक्ति का ही नहीं, बल्कि शृंगार रस का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। गीत गोविंद की रचना शैलीगीत गोविंद कुल 12 सर्गों (अध्यायों) में विभाजित है।प्रत्येक सर्ग में राधा और कृष्ण के मिलन, विरह, और पुनर्मिलन की घटनाओं का मार्मिक वर्णन है। इसमें संस्कृत श्लोकों और पदों (गीतों) का सुंदर संयोग है। रचना में भक्ति (मधुर भक्ति), प्रेम (शृंगार रस), और आध्यात्मिकता का संतुलित मिश्रण है।

गीत गोविन्द

श्रितकमलाकुचमण्डल धृतकुण्डल ए।
कलितललितवनमाल जय जय देव हरे॥

दिनमणिमण्डलमण्डन भवखण्डन ए।
मुनिजनमानसहंस जय जय देव हरे ॥

कालियविषधरगंजन जनरंजन ए।
यदुकुलनलिनदिनेश जय जय देव हरे ॥

मधुमुरनरकविनाशन गरुडासन ए।
सुरकुलकेलिनिदान जय जय देव हरे ॥

अमलकमलदललोचन भवमोचन ए।
त्रिभुवनभवननिधान जय जय देव हरे ॥

जनकसुताकृतभूषण जितदूषण ए।
समरशमितदशकण्ठ जय जय देव हरे ॥


अभिनवजलधरसुन्दर धृतमन्दर ए।
श्रीमुखचन्द्रचकोर जय जय देव हरे ॥

तव चरणे प्रणता वयमिति भावय ए।
कुरु कुशलंव प्रणतेषु जय जय देव हरे ॥

श्रीजयदेवकवेरुदितमिदं कुरुते मृदम् ।
मंगलमंजुलगीतं जय जय देव हरे ॥

राधे कृष्णा हरे गोविंद गोपाला नन्द जू को लाला।
यशोदा दुलाला जय जय देव हरे ॥


॥ इति श्री गीत गोविन्द सम्पूर्ण ॥

भावार्थ

श्रितकमलाकुचमण्डल धृतकुण्डल ए।
कलितललितवनमाल जय जय देव हरे॥

श्रितकमलाकुचमण्डल” का तात्पर्य है भगवान विष्णु के वक्षस्थल, जहाँ देवी लक्ष्मी सदैव निवास करती हैं। इसे उनके दिव्य स्वरूप और लक्ष्मी जी के साथ उनके शाश्वत संबंध का सूचक माना जाता है। धृतकुण्डल अर्थात जिनके कानों में चमकते कुण्डल शोभायमान हैं , उनकी आभा को और बढ़ाते हैं, और जो वनफूलों की मनमोहक माला धारण किए हुए हैं (कलितललितवनमाल)—ऐसे करुणामय और सौंदर्यमय हरि की बार-बार जय हो।

दिनमणिमण्डलमण्डन भवखण्डन ए।
मुनिजनमानसहंस जय जय देव हरे ॥

इस श्लोक में भगवान विष्णु के गुणों का सुंदर वर्णन किया गया है। वे भगवान, जो दिनमणिमण्डलमण्डन हैं अर्थात जो स्वयं सूर्य की महिमा को भी अलंकृत करते हैं और जिनकी दिव्यता और प्रकाश सूर्य के तेज को भी और अधिक सौंदर्य प्रदान करती है। जो समस्त सृष्टि के प्रकाश और ऊर्जा का स्रोत हैं। वे भवसागर के कष्टों को समाप्त करने वाले हैं (भवखण्डन), यानी जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करने वाले। उनके दिव्य स्वरूप को मुनियों के हृदय में विद्यमान हंस के समान देखा गया है (मुनिजनमानसहंस), जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है।

कालियविषधरगंजन जनरंजन ए।
यदुकुलनलिनदिनेश जय जय देव हरे ॥

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के दो प्रमुख गुणों का वर्णन है। वे कालिया नाग के विष का नाश करने वाले हैं (कालियविषधरगंजन), यानी उन्होंने कालिया नाग के अहंकार और विष को नष्ट कर, यमुना नदी को शुद्ध किया। इससे जन-जन को आनंद प्राप्त हुआ (जनरंजन) क्योंकि यह घटना उनके लोकहितकारी स्वरूप को दर्शाती है। उन्हें यदुवंश के सूर्य के समान बताया गया है। यदुकुलनलिनदिनेश” का अर्थ है भगवान श्री कृष्ण जो यदुकुल के नायक हैं और जिनका तेज सूर्य के समान है, जो हमेशा अपनी चमक से दुनिया को आलोकित करते हैं। यह वाक्य उनके दिव्य और प्रकाशमय रूप को व्यक्त करता है।।

मधुमुरनरकविनाशन गरुडासन ए।
सुरकुलकेलिनिदान जय जय देव हरे ॥

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के महान कार्यों और उनके दिव्य रूप का गुणगान किया गया है। यह श्लोक भगवान के उन पहलुओं को व्यक्त करता है जो उनके दिव्य कार्यों और गुणों को दर्शाते हैं।

  1. मधुमुरनरकविनाशन का अर्थ है वह भगवान, जिन्होंने मधु, मुर, और नरकासुर जैसे अत्याचारी राक्षसों का संहार किया। यह नाम भगवान की दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने वाली शक्ति का प्रतीक है।यह शब्द यह भी संकेत करता है कि भगवान हमेशा अधर्म, अन्याय और अज्ञान का नाश करने और अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए तत्पर रहते हैं।
  2. गरुडासन ए: “गरुडासन ए” का अर्थ है हे गरुड़ पर विराजमान प्रभु! यह भगवान विष्णु के उस स्वरूप को संबोधित करता है, जिसमें वे गरुड़ पर सवार होकर लोकों की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए यात्राएं करते हैं।
  3. सुरकुलकेलिनिदान: देवताओं के समूह (सुरकुल) की लीलाओं (केलि) का कारण या आधार (निदान)। भगवान विष्णु या कृष्ण जो देवताओं की समस्त लीलाओं और दिव्य कार्यों का मूल कारण हैं। यह विशेषण उनकी सृजनात्मक और संरक्षणात्मक शक्ति को उजागर करता है, जो पूरे ब्रह्मांड और विशेषकर देवताओं के समूह के लिए आनंद और सौंदर्य का स्रोत हैं।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण के रक्षक रूप और उनके अद्वितीय कार्यों का उल्लेख किया गया है, और उनके प्रति भक्ति का आह्वान किया गया है।

अमलकमलदललोचन भवमोचन ए।
त्रिभुवनभवननिधान जय जय देव हरे ॥
  1. अमलकमलदललोचन का अर्थ है जिनके नेत्र शुद्ध और निर्मल कमल की पंखुड़ियों के समान हैं।यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य रूप और उनकी अद्भुत शक्तियों का वर्णन करता है। भगवान श्रीकृष्ण का रूप अत्यन्त आकर्षक और शुद्ध है। कमल की पंखुड़ियों की तरह उनके नेत्र न केवल सुंदर हैं, बल्कि शुद्ध और निर्मलता से परिपूर्ण भी हैं।
  2. भवमोचन ए यानी भगवान श्रीकृष्ण भव (संसार) के बंधनों से (मोचन) मुक्त करने वाले हैं। वे भक्तों के सभी दुखों और संसार के बंधनों से उन्हें उबारने वाले हैं।
  3. त्रिभुवनभवननिधान का अर्थ है “तीनों लोकों के निवास स्थान का स्रोत या खजाना।” यह भगवान की सर्वव्यापकता और महत्ता को दर्शाता है। वे तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) के मूल आधार, संरक्षक और सम्पूर्ण सृष्टि के खजाने (आध्यात्मिक व भौतिक समृद्धि के केंद्र) हैं। सभी लोक उनकी सत्ता पर आश्रित हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालनहार और निर्माता हैं। उनका निवास समस्त संसार में व्याप्त है और वे हर जगह विद्यमान हैं।

इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की दिव्यता, उनके संसार से मुक्ति देने वाले रूप और उनके त्रि-लोक के सम्राट होने का उल्लेख किया गया है। श्लोक में उनकी महिमा का गुणगान करते हुए जयकारा किया गया है।

जनकसुताकृतभूषण जितदूषण ए।
समरशमितदशकण्ठ जय जय देव हरे ॥

यह श्लोक भगवान श्रीराम के अद्वितीय गुणों और उनकी महिमा का वर्णन करता है।

  1. जनकसुताकृतभूषण: भगवान श्रीराम का एक महत्वपूर्ण सम्बन्ध जनक (सीता के पिता) से जुड़ा हुआ है। वे सीता के पति हैं और उन्हें ‘जनकसुता‘ अर्थात जनक की पुत्री सीता का परम प्रिय मानते हैं। जहाँ माँ सीता, जो स्वयं शील, पवित्रता और सौंदर्य की मूर्ति हैं, श्रीराम के लिए भूषण (अलंकार) समान हैं। यह भाव प्रकट करता है कि सीता और राम का संबंध दिव्य और पूजनीय है, जहाँ वे एक-दूसरे के गौरव को बढ़ाते हैं।
  2. जितदूषण ए: ‘दूषण‘ से तात्पर्य है दुष्ट, और ‘जित‘ का अर्थ है विजय प्राप्त करना। यह संकेत है कि भगवान श्रीराम ने अत्याचारियों और असत्य के प्रतीकों पर अपनी विजय प्राप्त की।
  3. समरशमितदशकण्ठ: समर (युद्ध) में श्रीराम ने राक्षसों के प्रमुख दस सिर वाले रावण (दशकण्ठ) को हराया और उसे शमित (शांत) किया। इसका मतलब है कि श्रीराम ने युद्ध के दौरान रावण का संहार किया, जिससे राक्षसों का आतंक समाप्त हुआ। इस श्लोक के माध्यम से श्रीराम के अद्वितीय कार्यों और उनके द्वारा किए गए महान कार्यों की प्रशंसा की जाती है। इस श्लोक में भगवान श्रीराम के युद्ध कौशल, न्याय और सत्य की प्रतिष्ठा को व्यक्त किया गया है।
अभिनवजलधरसुन्दर धृतमन्दर ए।
श्रीमुखचन्द्रचकोर जय जय देव हरे ॥

यह श्लोक भगवान श्रीराम की दिव्य सुंदरता और अनंत शक्तियों का वर्णन करता है।

  1. अभिनवजलधरसुन्दर: यहाँ ‘अभिनव‘ शब्द का अर्थ है ‘नवीन’ या ‘नया’, और ‘जलधर‘ का अर्थ है ‘मेघ’ या ‘बादल’। ‘सुंदर‘ शब्द से तात्पर्य है ‘सुंदर’। इस पंक्ति का अर्थ है कि भगवान श्रीकृष्ण का रूप, जो बादल जैसे सुंदर और नवीन हैं, अत्यंत आकर्षक और मनोहक हैं। उनका रूप ऐसा है, जैसे कोई नया मेघ जो आकाश में सुंदरता से फैला हो। ‘मन्दर‘ शब्द का अर्थ है ‘माउंट मन्दर’, जो एक पवित्र पर्वत है। यहाँ इसका संदर्भ भगवान श्रीकृष्णके शक्तिशाली रूप से है
  2. धृतमन्दर ए:धृत‘ का अर्थ है ‘धारण करने वाला’। इसका अर्थ है कि भगवान श्रीकृष्णने अपनी शक्ति और सौंदर्य को धारण किया हुआ है, जैसे मन्दर पर्वत पृथ्वी पर स्थिर रहता है।
  3. श्रीमुखचन्द्रचकोर: ‘श्रीमुख‘ का अर्थ है ‘भगवान का मुख’, और ‘चन्द्र‘ का अर्थ है ‘चाँद’। ‘चकोर’ एक पक्षी है जो चाँद को अत्यधिक प्रेम करता है। इस पंक्ति में भगवान श्रीकृष्णके मुख की तुलना चाँद से की गई है, और यह दर्शाया गया है कि जैसे चकोर चाँद की ओर आकर्षित होता है, वैसे ही भक्त भगवान के मुख की ओर आकर्षित होते हैं।

इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य रूप, सौंदर्य और भक्तों के लिए उनकी आकर्षण की गहराई को व्यक्त किया गया है।

तव चरणे प्रणता वयमिति भावय ए।
कुरु कुशलंव प्रणतेषु जय जय देव हरे ॥

यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणति और समर्पण की भावना को व्यक्त करता है।

  1. तव चरणे प्रणता वयमिति भावय ए: इस का अर्थ है कि हम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित हैं, और हमारी श्रद्धा और समर्पण उनके पवित्र चरणों में निहित है। “प्रणता” का अर्थ है दीन, विनम्र, और श्रद्धा से नतमस्तक होना। “वयं” का अर्थ है हम (अर्थात भक्तगण), और “भावय” का अर्थ है विचारना, या महसूस करना। इसका तात्पर्य है कि हम अपने दिल और आत्मा से भगवान श्रीराम के चरणों में समर्पित हैं।
  2. कुरु कुशलंव प्रणतेषु: यह वाक्य भगवान से प्रार्थना करता है कि वह उन भक्तों के लिए कल्याणकारी कार्य करें जो उनके चरणों में समर्पित हैं। “कुशलं” का अर्थ है कल्याण या शुभ कार्य, और “प्रणतेषु” का अर्थ है उन भक्तों में जो नतमस्तक हैं या समर्पित हैं।
  3. जय जय देव हरे: यह मंत्र भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का उद्घोष है। “जय जय” का अर्थ है विजय और महिमा की घोषणाएं। “देव हरे” से तात्पर्य है भगवान श्रीकृष्ण, जो हरे (साक्षात भगवान) हैं। यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्ण समर्पण, भक्ति और उनकी कृपा की प्राप्ति की प्रार्थना को व्यक्त करता है। इसमें भक्तों का आशीर्वाद और कल्याण की कामना की जाती है, ताकि भगवान श्रीकृष्ण उन्हें हर प्रकार से आशीर्वादित करें।
श्रीजयदेवकवेरुदितमिदं कुरुते मृदम् ।
मंगलमंजुलगीतं जय जय देव हरे ॥

यह श्लोक श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की महिमा और भक्ति के साथ-साथ मंगल और कल्याण की कामना की जाती है। इस श्लोक का अर्थ और भावार्थ निम्नलिखित है:

  1. श्रीजयदेवकवेरुदितमिदं कुरुते मृदम्:
    “श्रीजयदेवकवे” का अर्थ है, जो प्रसिद्ध कवि श्रीजयदेव ने रचित किया। इस वाक्य का अर्थ है कि यह श्लोक, जो भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति में रचित है, श्रीजयदेव द्वारा लिखा गया है, और यह श्लोक मृदु और सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। “मृदम्” का अर्थ है कोमल, शांतिपूर्ण और मधुर।
  2. मंगलमंजुलगीतं जय जय देव हरे:
    मंगलमंजुलगीतं” का अर्थ है शुभ, मधुर और मंगलकारी गीत। इस वाक्य में कहा गया है कि यह श्लोक या गीत भगवान श्रीराम के गुणों की सुंदर स्तुति है, जो समस्त संसार के लिए मंगलकारी है। “जय जय” का अर्थ है विजय और महिमा की घोषणाएं। “देव हरे” से तात्पर्य भगवान श्रीराम से है, जो हर रूप में देवता हैं।

समग्र अर्थ:
यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति है, जिसे श्रीजयदेव कवि ने मधुर और मंगलकारी रूप में रचित किया है। इसके माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की महिमा और आशीर्वाद की प्राप्ति की कामना की जाती है। “जय जय देव हरे” के साथ यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण के कल्याण की घोषणा करता है, और भक्तों के जीवन में शुभता और समृद्धि की कामना करता है।

राधे कृष्णा हरे गोविंद गोपाला नन्द जू को लाला।
यशोदा दुलाला जय जय देव हरे ॥

यह श्लोक भगवान श्री कृष्ण की महिमा का गायन करता है, जो राधा के प्रिय, गोविंद, गोपाला और यशोदा के लाडले हैं। इसका अर्थ और भावार्थ निम्नलिखित है:

  1. राधे कृष्णा हरे गोविंद गोपाला नन्द जू को लाला:
    इस वाक्य में भगवान श्री कृष्ण के विभिन्न नामों का उल्लेख किया गया है। “राधे कृष्णा” का अर्थ है राधा के साथ जुड़े श्री कृष्ण। “हरे गोविंद” भगवान कृष्ण को गोविंद के रूप में, जो संसार को पालने वाले हैं, संदर्भित करता है। “गोपाला” का अर्थ है वह भगवान जो गायों के रक्षक हैं और “नन्द जू को लाला” का अर्थ है नन्द महाराज का प्रिय पुत्र, भगवान श्री कृष्ण। इस वाक्य में भगवान श्री कृष्ण की दिव्य लीलाओं और उनके प्रेमी राधा के साथ संबंध का बखान किया गया है।
  2. यशोदा दुलाला जय जय देव हरे:
    इस वाक्य में भगवान श्री कृष्ण को यशोदा का प्रिय पुत्र, “दुलाला” कहा गया है। यशोदा माँ ने ही श्री कृष्ण को पाल-पोसकर बड़े किया। “जय जय देव हरे” का अर्थ है भगवान श्री कृष्ण की जय हो। यह वाक्य श्री कृष्ण के गुण, रूप और शक्ति की महिमा को गाता है और उनकी जय का उद्घोष करता है।

यह श्लोक भगवान श्री कृष्ण की स्तुति है, जिसमें उन्हें राधा के प्रिय, गोविंद, गोपाला और यशोदा के लाडले के रूप में संबोधित किया गया है। इसे गाकर भक्त भगवान श्री कृष्ण की महिमा, उनके प्रेम और आशीर्वाद की प्राप्ति की कामना करते हैं। “जय जय देव हरे” के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की जय और विजय की घोषणा की जाती है।

गीत गोविंद का प्रभावगीत गोविंद भारतीय साहित्य और संगीत में अद्वितीय स्थान रखता है। इसे विभिन्न शास्त्रीय नृत्यों (जैसे ओडिसी, भरतनाट्यम) में प्रस्तुत किया जाता है।वैष्णव भक्ति आंदोलन और कृष्ण भक्ति परंपरा को गीत गोविंद ने अत्यधिक प्रभावित किया। राधा-कृष्ण की लीला का यह वर्णन भारतीय मंदिरों में भी कलात्मक अभिव्यक्ति का आधार बना। गीत गोविंद केवल एक काव्य रचना नहीं है, बल्कि यह भक्ति और प्रेम का एक ऐसा कालजयी ग्रंथ है जो आज भी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक है।

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